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भ॒द्रा द॑दृक्ष उर्वि॒या वि भा॒स्युत्ते॑ शो॒चिर्भा॒नवो॒ द्याम॑पप्तन्। आ॒विर्वक्षः॑ कृणुषे शु॒म्भमा॒नोषो॑ देवि॒ रोच॑माना॒ महो॑भिः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhadrā dadṛkṣa urviyā vi bhāsy ut te śocir bhānavo dyām apaptan | āvir vakṣaḥ kṛṇuṣe śumbhamānoṣo devi rocamānā mahobhiḥ ||

पद पाठ

भ॒द्रा। द॒दृ॒क्षे॒। उ॒र्वि॒या। वि। भा॒सि॒। उत्। ते॒। शो॒चिः। भा॒नवः॑। द्याम्। अ॒प॒प्त॒न्। आ॒विः। वक्षः॑। कृ॒णु॒षे॒। शु॒म्भमा॑ना। उषः॑। दे॒वि॒। रोच॑माना। महः॑ऽभिः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:64» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उषः) प्रभातवेला के समान वर्त्तमान (देवि) विदुषी ! जिससे तू (भद्रा) कल्याणकारिणी (ददृक्षे) देखी जाती है तथा (उर्विया) बहुरूप हुई घर के कामों को (उत्, वि, भासि) विशेषकर उत्तम प्रकाश करती है जिस (ते) तेरी (शोचिः) उत्तम नीति का प्रकाश (भानवः) किरणें जैसे (द्याम्) अन्तरिक्ष को (अपप्तन्) जातीं प्राप्त होतीं, वैसे (वक्षः) छाती का (आविः, कृणुषे) प्रकाश करती है वा (महोभिः) महान् शुभ गुणकर्म स्वभावों से (शुम्भमाना) सुन्दर शोभायुक्त और (रोचमाना) विद्या और विनय से प्रकाशित होती हुई सुख देती है, इससे अच्छे प्रकार सत्कार करने योग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्रियो ! तुम चतुरता से सब पति आदि को सन्तोष देकर, घर के कामों को यथावत् अनुष्ठान कर, अतिविषयासक्ति को छोड़ और सुन्दर शोभायुक्त होकर सदैव पुरुषार्थ से धर्मयुक्त कामों को सूर्य के समान प्रकाशित करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे उषर्वद्वर्त्तमाने देवि ! यतस्त्वं भद्रा दृदृक्ष उर्विया सती गृहकृत्यान्युद्वि भासि यस्यास्ते शोचिर्भानवो द्यामपप्तन्निव वक्ष आविष्कृणुषे महोभिः शुम्भमाना रोचमाना सती सुखं प्रयच्छसि तस्मात् संपूज्यासि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भद्रा) कल्याणकारिणी (ददृक्षे) दृश्यते (उर्विया) बहुरूपा (वि) (भासि) (उत्) (ते) तव (शोचिः) (भानवः) किरणाः (द्याम्) अन्तरिक्षम् (अपप्तन्) पतन्ति गच्छन्ति (आविः) प्राकट्ये (वक्षः) वक्षःस्थलम् (कृणुषे) (शुम्भमाना) सुशोभायुक्ता (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (देवि) विदुषि (रोचमाना) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमाना (महोभिः) महद्भिः शुभैर्गुणकर्मस्वभावैः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रियो ! यूयं चातुर्येण सर्वान् पत्यादीन् सन्तोष्य गृहकृत्यानि यथावदनुष्ठायातिविषयासक्तिं विहाय सुशोभा भूत्वा सदैव पुरुषार्थेन धर्मकृत्यानि सूर्य्यवत्प्रकाशयत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे स्त्रियांनो ! तुम्ही चतुरतेने पती इत्यादींना संतुष्ट करून गृहकृत्ये व्यवस्थित करा. अति विषयासक्तीचा त्याग करा. सुंदर व शोभिवंत बनून सदैव पुरुषार्थाने धर्मयुक्त कार्यात सूर्याप्रमाणे प्रकाशित व्हा. ॥ २ ॥